Tuesday 16 October 2012

Bhains ke aage been bajaye (भैंस के आगे बीन बजाए)



बचपन से ही दो प्रचलित कहावतें अक्सर ही सुनता आ रहा हूं – 1. गाय हमारी माता है ….. और 2. भैंस के आगे बीन बजाए……… वैसे तो इन दोनों कहावतों कि अपनी प्रासंगिकता हैं, किंतु कहीं ना कहीं यह सदियों से चली आ रही हमारी सामाजिक सोच और सामाजिक व्यवस्था को भी इंगित करता है।

यह सर्वविदित है कि गाय और भैंस दोनों ही दुग्ध उत्पादक हैं, और यह भी सत्य है कि भारत में कुल दूध उत्पादन में आधे से अधिक  भागीदारी भैंसों की है किंतु फिर भी उसे तिरस्कृत नजरों से देखा जाता है, जबकि गायों को पूज्य! यही व्यवस्था कमोबेश भारतीय समाज अर्थव्यवस्था एवं राजनीति में दिखती है। उत्पादन के अधिकांश भाग में किसानों और कामगारों का योगदान होता है किंतु बड़ा श्रेय व्यवसाई कारोबारी एवं सेवा क्षेत्र के अधिकारियों को मिल जाता है और वह आदरणीय और पूज्य बन जाते हैं।

भैंस के तिरस्कृत होने के मुख्य कारण हैं – 1. उसकी कुरूपता 2. उसका मंदबुद्धि और असभ्य व्यवहार एवं 3. अन्य वर्गों (गायों) द्वारा उनके श्रम का अपहरण। इसके विपरीत गाय सुंदर एवं सभ्य समझी जाती हैं और भैंसों के उत्पादन (श्रम) का अपहरण कर उसे अपनी ब्रांडिंग भी करने की क्षमता रखती है।  यही बात आज के जीवन में दिखती है: अक्सर ही सुंदरता, (भले ही वह बेवकूफ) क्यों ना हो किसी अन्य परिश्रमी के श्रम का अपहरण कर लेती है और बिना किसी श्रम के आसान जीवन जी लेती है। इसी प्रकार बुद्धिजीवी एवं सभ्य कहे जाने वाले लोग किसानों एवं कामगारों के श्रम का अपहरण कर उनके उत्पादन ऊपर अपनी ब्रांडिंग कर मुनाफे का अधिकांश हिस्सा हड़प लेते हैं, और इस प्रकार से समाज में एक आदरणीय स्थान बना लेते हैं, जबकि वास्तविक श्र्म लोक व्यवहार की अपनी कुछ कमियों की वजह से उपहास और तिरस्कार के पात्र बने रहते हैं।

इसे संयोग ही कह सकते हैं कि विश्व में सबसे ज्यादा भैंसे भारत में पाई जाती हैं और विश्व में सबसे ज्यादा सस्ते श्रम भी भारत में ही है। इसमें भी दो राय नहीं है कि भैंस के दूध की गुणवत्ता गाय के दूध से अधिक होती है और बचपन से ही जहां हमें गायों के लिए अनेकों कहावतें और ललित निबंध लिखना सिखाया जाता है वही भैंसों के लिए बस भैंस के आगे बीन बजाए….. जैसी कहावतें ही पढ़ाई जाती है, अथवा किसी काले या मोटे को चिढ़ाने के लिए भैंस शब्द का इस्तेमाल किया जाता है।

स्थिति तो यह है की बहुत सारे  बच्चों जो हर रोज भैंस का दूध पीकर बड़े हो रहे हैं उन्हें यदि भैंस दिखा दिया जाए तो घृणा  इस हद तक पनप चुकी होती है कि वह दूध पीना छोड़ दें। लोगों की ऐसी ही उपेक्षा  दैनिक जीवन में किसान और कामगार के लिए देखने को मिलती है।

इस लेख के द्वारा में किसी सामाजिक या आर्थिक परिवर्तन का मॉडल देने का प्रयत्न नहीं कर रहा हूं, बस  इतना कहने का प्रयास कर रहा हूं कि हम उत्पादन के प्रमुख श्रम शक्ति, किसानों और कामगारों को कम से कम उपेक्षा और तिरस्कार की दृष्टि से ना देखें और उन्हें उचित सम्मान और प्यार अवश्य दें। जय भारत।