Saturday 26 September 2015

पढने की बेचैनी




बिहार विधानसभा का चुनाव जबकि सर पर है, सभी प्रमुख और छोटे दाल विकास के नाम पर जातिगत समीकरण बनाने में पसीना बहा रहे हैं | मुद्दे के नाम पर इन नेताओं और दलों के पास जिंदाबाद-मुर्दाबाद, तू-तू-मैं-मैं, एक दूसरे को अनाप-शनाप गाली और आरोप के तौफे देने और चुनावी जुमलेबाजी के शिवाय कुछ है नहीं | और ऐसा शायद इस लिए है की जनता इनको वास्तविक मुद्दों पर घेरना ही नहीं चाहती है, चाहे वो फेसबुक-ट्विटर पर हों या वास्तविक धरातल पर ! 
मैं बिहार का वोटर नहीं हूँ, किन्तु बिहार मेरा गृह राज्य है इस नाते बिहार के विकास और इससे जुड़े मुद्दों के प्रति मैं उत्सुक भी रहता हूँ और उत्साहित भी | मेरी नजर में धरातलीय कई मुद्दे हैं जिन्हे बिहार के विकास के सम्बन्ध में अमल में लाया जाना चाहिए | इनमे से एक प्रमुख मुद्दा शिक्षा तथा शैक्षणिक संस्थानों के विकास का है | 

इस मुद्दे पर मैंने २००९-१० के समय भी नीतिश कुमार के कार्य से असंतुष्टि जताई थी और उसकी आलोचना की थी जिस वक्त आज नीतिश को गाली देनेवाले और उन्हें आतंकवादी का साथी तक करार देनेवाले भाजपाई भक्त ने सर पर बिठा रखा था | और आज भी इस दिशा में उल्लेखनीय परिणाम नहीं दीखता है | 


२३ सितम्बर के टाइम्स ऑफ़ इंडिया में इस मुद्दे पर सुपर ३० के आनंद सर और अभयानंद सर के हवाले से छपी एक खबर को पढने के बाद मैं एकबार फिर इस मुद्दे को उत्साह से देख रहा हूँ |


वर्ष २००० में झारखंड के अलग हो जाने के बाद बिहार के हिस्से में बाढ़ और सुखार के अलावा कुछ ख़ास नहीं आया, खासकर के उत्तर बिहार (मिथिला) के क्षेत्र में | इस क्षेत्र का एक मात्र संसाधन शिक्षा है | आज भी इस क्षेत्र के सुदूर इलाकों में आप ८-१० बच्चों को एक ही लालटेन या बल्ब के रौशनी में बैठकर पढ़ते देख सकते है | अत: बिहार के विकास के लिए आवश्यक है की राज्य में अधिक से अधिक स्मार्ट विद्यालयों का विकास हो | यद्यपि इस मामले में यह तर्क दिया जा सकता है कि नीतिश कुमार के पिछले ९-१० वर्षों के शासन काल में बहुत से विद्यालयों का निर्माण एवं शिक्षकों की भर्ती हुई है | किन्तु स्मार्ट विद्यालय उसे नहीं कहा जा सकता है जहां मध्याह्न भोजन, कुछ कल्याणकारी योजना और शिक्षकों का संख्या बल हो | स्मार्ट विद्यालय बनाता है स्मार्ट शिक्षकों से जिनमे पढ़ाने की काबिलियत और जज्बा दोनों हो | लालू-राबड़ी और उनके पूर्ववर्ती कालों में जहां शिक्षा एवं शिक्षण संस्थान ध्वस्त होते गए थे वहीँ नीतिश कुमार के शासन काल में इन्हे मजबूत करने के प्रयास तो हुए किन्तु ये प्रयास परिणामोन्मुखी न होकर लीपा-पोती ज्यादा रहे | शिक्षकों के भर्ती का पैमाना पढ़ाने के प्रति उनकी क्षमता और लगन को न बनाकर भिन्न-भिन्न कालखंडों में उनकेद्वारा प्राप्त डिग्री एवं अंक(मार्क्स) को बनाया गया | परिणामस्वरूप शिक्षकों के नाम पर गदहों की फ़ौज ठेल दिया गया इन विद्यालयों में (क्षमा करें यही शब्द मिला मुझे इनके सम्बोधन के लिए) | यही कारण हुआ की कल्याणकारी योजनाओं का लाभ लेने के लिए इन विद्यालयों में नामांकन में तो लगातार वृद्धि हुई किन्तु यहाँ पंजीकृत आर्थिक रूप से सक्षम छात्र जहां निजी विद्यालयों में शिक्षा ले रहे हैं वहीँ कामजोर वर्ग के छात्र इन अक्षम शिक्षकों से अतिनिम्नस्तरीय शिक्षा लेने को अभिशप्त है और परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने के लिए इन्हे कदाचार का सहारा लेना पर रहा है | 

वर्ष २०१३ में दस हजार से अधिक शिक्षामित्र राज्य सरकार द्वारा लिए गए योग्यता परीक्षा में असफल रहे थे | सफल रहे शिक्षकों में भी एक बड़ी संख्या नक़ल और जुगाड़ से सफल रहे लोगों की रही होगी इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है | 

तब इस समस्या का हल क्या हो ? इसका हल यह हो सकता है सरकार इन शिक्षकों को समय-समय पर और व्यापक रूप से प्रशिक्षण दे एवं इनके समुचित वेतन की व्यवस्था करे| अच्छे शिक्षकों को सम्मानित एवं पुरस्कृत किया जाना चाहिए |  यद्यपि इनके वेतन को नियमित कर के सरकार ने एक हल तो दे ही दिया है | अत: सरकार से अब व्यापक स्टार पर यह मांग होनी चाहिए की इन शिक्षकों को शिक्षण तकनीक एवं जिम्मेदारी की पेशेवर समझ स्थापित करने के लिए व्यापक स्टार पर प्रशिक्षित किया जाए | इसके लिए राज्य सरकार केंद्रीय विद्यालय संगठन, नवोदय विद्यालय समिति, विश्वविद्यालय स्तरीय शिक्षण संगठनो आदि से सहयोग मांग सकती है | एक अन्य समस्या इन शिक्षकों के चुनाव, सर्वे, पंचायत एवं प्रखंड स्तरीय कार्यों में लगाने तथा इनमेसे बहुतों का अपने निजी व्यवसाय में जुड़े होने से है | अत: इस सम्बन्ध में आनेवाली सरकार से उम्मीद करनी चाहिए की वो इन शिक्षकों को शिक्षण के अलावा अन्य कार्यों में काम से काम लगाएगी तथा विद्यालय में इनके समुचित उपस्थिति को सुनिश्चित करेगी और इस सम्बन्ध में कठोर कार्यवाही करने से नहीं चूकेगी | 

दूसरा मुद्दा उच्च एवं तकनीकी शिक्षा का है | बिहार में जहां आनंद सर और अभयानंद सर जैसे शिक्षक उपस्थित हैं जिनके सुपर ३० के ३० के ३० छात्र आईआईटी या अन्य बड़े अभियांत्रिकी संस्थानों में हर साल प्रवेश पा रहे हैं, बिहार, जहां के एक ही गाॉव से १८ बच्चे आईआईटी जी (एडवांस) उत्तीर्ण कर लेते हैं, जहां के बच्चे कर्नाटक, तमिलनाडु, बंगाल, उड़ीसा, एमपी, यूपी हर जगह के इंजीनियरिंग और मेडिकल कालेजों की शोभा बढ़ा रहे हैं वहां उच्च गुणवत्ता वाले उच्च एवं तकनीकी शिक्षण संस्थानों का सुखा पड़ा है | नीतिश कुमार के १० वर्षों के शासन काल को इस कसौटी पर भी कसना चाहिए |, जिस समयावधि में मेरे जानकारी में राज्य सरकार ने कोई बड़ा इंजीनियरिंग/मैडिकल या प्रबंधकीय संस्थान स्थापित नहीं किया है | इस दौरान राज्य में निजी संस्थानों की स्थापना भी कोई उल्लेखनीय नहीं रहा है | न ही इस सम्बन्ध में मैंने कभी राज्य सरकार को कोई उत्साहवर्धक कार्य का घोषणा करते देखा-सुना है | 

अत: जनता यदि विकास को सचमुच में मुद्दा बना रही है तो इन पार्टियों/उम्मीदवारों से यह आस्वासन अवश्य ही मांगनी चाहिए कि आनेवाली सरकार इन मुद्दो को प्राथमिकता देगी और अधिक से अधिक स्मार्ट विद्यालयों एवं उच्च शिक्षण संस्थानों के विकास के लिए साकारात्मक एवं परिनामोनमुखी प्रयास करेगी ताकि बिहार के अधिक से अधिक छात्रों के "पढने की बेचैनी" मिट सके और उनका मेहनत पर विशवास कायम रह सके | यदि ऐसा होता है तो बिहार का समृद्ध मानव संसाधन निश्चित ही बिहार को विकास के पटरी पर दूर तक ले के जाएगा | बाँकी तो जो है सो हैए है | 
नमस्कार

Thursday 10 September 2015

कागज़ को जलते देखा है ।

बस स्टॉप के कोने में
कूड़े की एक ढेर पर
कागज़ को जलते देखा है |

जीवन के आपाधापी में
खबरें बनते हैं खो जाते हैं
ऐसे ही कुछ खबरों को
कागज़ संग जलते देखा हैं
कागज़ को जलते देखा है |

यहाँ कर्ज में डूबे किसान नए हैं
आरक्षण के मांग नए हैं
कार्यकर्ता संग नेताओं को
धरने पर बैठे देखा हैं
कागज़ को जलते देखा है |

यहाँ विज्ञापन के शान नए हैं
थाली में सजे पकवान नए हैं
पर ऐसे भी कुछ बच्चे हैं जिन्हे
रोटी को मचलते देखा हैं
कागज़ को जलते देखा है |

यहां माया भी हैं, आध्यात्म भी हैं
उपहारों की सौगात भी हैं
झूठी दौलत शोहरत के लिए
रिश्तों को मरते देखा हैं
कागज़ को जलते देखा है |

यहां खेल भी हैं, व्यापार भी हैं
पेज-३ के कागज़ चार भी हैं
भावनाहीन बाजार तो हैं
पर शेयर के कुछ भाव भी हैं
सोने-चाँदी के कीमत को
चढ़ाते और गिरते देखा हैं
कागज़ को जलते देखा है |

शहर गाँव गली घुमा
हर ओर नजर को फेर लिया
इनकी तस्वीर नहीं बदली पर
बड़े रंगीन विज्ञापन में, मंत्री के
तस्वीरों को बदलते देखा हैं
कागज़ को जलते देखा है |

यहाँ रिक्तियां हैं, निविदा भी हैं
विज्ञापन की सुविधा भी हैं
महाजनो के साक्षात्कार भी हैं
पाठकों के कुछ सवाल भी हैं
प्रतिदिन कुछ नौनिहालों को
सूरज सा चढ़ता देखा हैं
कागज़ को जलते देखा है |
10.09.2015